तारीफ़
करूँ भी तो कैसे आपकी
शुकराना
गाऊँ भी
तो कैसे आपका
वोह
अलफ़ाज़ कहाँ से लाऊँ मैं
कलम
में दम ही नहीं है
स्याही
में रंग ही कहाँ है
गुरूजी,
शब्दों का अभाव है,
मन मेरा
अनपढ़ी किताब है
आपने
तो
पढ़ी ही होगी
पन्ने
जिसके अब
साफ़ हैं
उसी
पर मैं
लिखा करती हूँ
कोशिश
फिर एक बार करती
हूँ
अनगिनत,
आपकी
अनसुनी बातें
जो बनती
जा
रही
हैं अब
यादें
गुरूजी
आपको
मैंने ढूँढा
था बहुत
सतगुरु
को
भी खोजा
था
बहुत
कभी
द्वार
पर,
कभी
समाधि
पर
कभी
बगिया में,
कभी
कुटिया
में,
कभी
मंदिर में
, कभी कक्ष
में आपके
आपकी
निशानियाँ मिलीं
बेहिसाब,बेअंत,
पर आपसे
नहीं ही
हुई मेरी मुलाक़ात
सब कहते थे
वोह रहे , वोह
रहे, वोह रहे
मैं सोचती थी कहाँ गए,
कहाँ
गए, कहाँ गए
मन
में गहराए कई तूफ़ान और जलजले
लहरों
की ऊंचाई नापी ही
नहीं जाती थी
हर
बार मुझे
वोह भिगोये जाती
थीं
खाली आती थी
मैं, खाली चली जाती
थी
लेकिन
जिनकी मेरी आँखों को तलाश थी
वोह
नहीं पाती थी, शिवलिंग
गवाह हैं,
फिर
शिवजी से भी यह
बात पूछी मैंने
हमारी
मुलाक़ात हर बार छूट जाती
थी
जाने
कब तक चलता रहा यह सिलसिला
किनारों
को तूफ़ान जैसे मुझे झकझोरते रहे
फिर
एक दिन मुझे एक भक्त ने सुनाया
कि
गुरूजी, उन्होंने आपका बहुत पास है
देखा
है आपको, सब कारज हुए पूरे बिन मांगे
मन
खुश हुआ, सुनकर आपकी खुदाई
पल
बदलते ही, मन पलटा, पूछा मैंने आपसे
हे
गुरूवर, मैंने तो नहीं मांगी आपसे खुदाई
फिर
भी आपकी एक झलक मैंने क्यों नहीं पायी ?
फिर
भी आपकी प्रीत मैंने क्यों नहीं पायी ?
शांत,
सौम्य गुरुवर से मेरे दिल ने दी दुहाई.
बहुत
हो चुका है, सब्र मेरा अब खो चुका है
दिल
भर आया, भावों ने मुझे फिर जगाया
अब
क्या इसके आगे नहीं है कोई सुनवाई ?
ये
क्या आलम हुआ, ये क्या आलम हुआ,
अब
क्या तू अपने रब से भी हुई परायी ?
और
फिर एक बार, मेरी आँखें नम हो आईं
नए
बरस में जाने का अदभुत एक दृश्य था
सुन्दर
दुल्हन सा मंदिर आपका, यूं सजा था,
आज
फिर मन-मस्तिष्क में कई प्रश्नचिन्ह थे,
उलझनों
में घिरी, मैं आपको तलाशती फिरी
मन
जो पढ़ लेते हैं आप विचार आने से पहले
जानते
थे सब-कुछ मेरे कहे जाने से पहले
मेरे
गुरुवर, आपने ही यह लीला रचाई होगी
नहीं
तो क्या मुझमें इतनी शक्ति आयी होगी?
कि
रूबरू हो जाऊं सलोने, से ‘रब’ से अपने
पंगतें
भी थी और संगतें भी थीं बेशुमार
माथा
भी टेक लिया, बैठ भी मैं गई
ध्यान
में आपके डूबती-उतरती मैं गई
जब
पुकारा आपने, नज़र आ गए मुझे
नजराना
आपका सच समझ आ गया मुझे
समय
थम गया और चित्र भी बदल गया था
यह
सब नया-नया जो मेरा नसीब हो गया था
चित्र
वोह आपका जीवंत हो गया था
हर
अक्स और नक्श जीवंत हो गया था
होंठ
हिल रहे थे मानो कमल खिल रहे थे
नयनों
में आपके मानो दिए जल रहे थे
आभा
तुमरी ऐसी--कैसे आँखों में जा समाये
मुस्कुराए, मुस्कुराए, आप खूब मुस्कुराए
झंकार
मेरे मन की, मुझको ही सुन रही थी
फिर
मुझको ये ज्ञान आया-- वही तो नूर पाया
मुख-मंडल
में मुझको सूर्य का तेज पाया
आँखें
बरस रही थीं, ये कैसी ये घड़ी थी
कहूँ
क्या अब सवाली खुद सवाल हो गया है
क्योंकि
मेरे गुरूजी का अब मुझे जवाब मिल गया है
सब
कुछ है मैंने पाया, सब कुछ मैं खो रही हूँ,
मर
कर भी जो न पाती, वोह जी के ले रही हूँ,
न
लेके साथ आयी, न कुछ साथ ले गयी हूँ
फिर
भी यह भरोसा कि झोली भर गयी है
सुनवाई हो
गई है, सुनवाई
हो गई है